बृजमोहन जोशी की विशेष रपट :-
बिरुड़-पंचमी (आंठू)
गंवरा ‘गौरा’-मैंसर ‘महेश्वर’ आंठू….. का विशेष महत्व

नैनीताल। लोक संस्कृति में गौरा-मैंसर अनुष्ठान की तैयारी भादो माह की शुक्ल पक्ष की पंचमी से हो जाती है तथा यहां के ‘पंचांग’ में इसे बिरुड़-पंचमी के नाम से जाना जाता है। बिरुड़-पंच अनाजों के लिए दिया गया शब्द है। इस दिन प्रातः काल महिलाएं तांबे के बर्तन में बिरुड़ भिगोने डालती हैं, इस बर्तन के चारों ओर पांच स्थानों में गोबर तथा दूब घास के तिनके लगाए जाते हैं। ब्याहता महिलाएं जो अभी मां नहीं बनी है उनके द्वारा स्थानीय ‘सावा’ के पौधों से या अनाज के पौधों से गौरा-मैंसर व बाला के डिकारे, पुतले, मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। इन्हें स्थानीय परिधान व आभूषण पहनाये जाते हैं। इन्हें एक डलिया में रखकर घर लाते हैं।


घर के आंगन में महिलाओं के द्वारा गौरा के जन्म से लेकर ससुराल जाने तक के लोक गीत गाए जाते हैं। आंठू का तात्पर्य है भादो माह में पड़ने वाली अष्टमी। दुर्वाष्टमी के व्रत के दिन महिलाएं दूब घास का डोर पहनती हैं यह एक प्रागैतिहासिक धारणा है जिसका संबंध अटल सुहाग व संतान की प्राप्ति की कामना से है। महिलाएं इसे यज्ञोपवीत की तरह धारण करती हैं अर्थात इसी दिन पुराना डोर उतारती हैं व नया डोर धारण करती हैं।
यजुर्वेद के अनुसार- की हे स्त्री तू जैसे असंख्यता और बहुत प्रकार के अवयवों के साथ गांठ से गांठ सब ओर से जैसे दूब घास बढ़ती है वैसे ही हमको मातृत्व, भ्रातृत्व, और पौतृत्व और ऐश्वर्य से विस्तृत करो।
जौनसारी महिलाएं ‘छामरा’ नामक घांस से निर्मित किए गए पुतले को ‘छामड़ियां-दानव’ कहती हैं, जो स्त्री को संतानवती नहीं होने देता। माता की पूजा हो या मातृत्व की बाधक शक्ति प्रजनन की आराधना दोनों में होती है। गौरा का चरित्र पर्वतीय समाज में एक सशक्त नारी का चरित्र है जो कुमाऊंनीं लोक संस्कृति को एक नई पहचान देता है। लोक मर्यादा आपसी सद्भाव तथा नारी के प्रति यह गाथा एक सम्मानजनक भावना का प्रदर्शन करती है। गौरा देवी जो साधारण पर्वतीय नारी की भांति अपनी सास, सौतों व मायके पक्ष पर अपना अधिकार होने से पूजा की सामग्री मांगती है।
पूजा का लंबा चौड़ा विधान है, जिसे पुरोहित जी द्वारा संपन्न कराया जाता हैं स्त्रियां अपने-अपने डोर को और दुबड़े को गौरा की डलिया में रखकर उसकी प्रतिष्ठा करवाती है। डोर को बाहं में तथा दुबड़े को गले में धारण किया जाता हैं ।
तीसरे दिन गौरा-मैंसर की डलिया घर से बाहर लाई जाती है। डलिया में चढ़ाए गए सभी फल एक चादर में रखकर चादर को दों कोनों से दों व्यक्ति पकड़कर आकाश की ओर उछालते हैं। यह रस्म फल फटकने की रस्म कहीं जाती है। स्त्रियां आकाश से गिरे इन फलों को पाने की लालसा में अपने-अपने आंचल पसारे खड़ी रहती हैं फल का आंचल में गिरना अपुत्रवती की गोद भर जाने का आशीर्वाद समझ लिया जाता है।
बिरुड़ भाट की कथा का गायन महिलाएं सामूहिक रूप से करती हैं। बिणीभाट की कथा इस प्रकार है-
बिणीभाट की सात बहुऐ थी। थी सब की सब एकदम बांझ। सबसे पहले बड़ी बहू ने इस ब्रत को किया किंतु वह इस व्रत के नियम का पालन न कर सकी। उसके बाद दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, छठी बहू ने भी वही गलती दोहराइ। अंत में सातवीं बहू ने इस ब्रत के अनुष्ठान को संपन्न किया और दसवें मास उसे एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई परंतु सौतों से उसका सुख देखा न गया उन्होंने उस बच्चे को मार डालने के लिए कई षड्यंत्र किए किंतु सफलता नहीं मिली। दूसरे वर्ष भी यह पर्व आ पहुंचा सातवी बहू ने सास से व्रत करने के लिए तांबे की कुनी और बत्ती जलाने के लिए दीपक मांगा। सौतों के द्वारा पट्टी पढ़ाई गई सांस बोली “इस घर में तुम्हारे लायक उपकरण नहीं है”, “व्रत करने का तुम पाखंड करती हो इतनी पक्की ब्रति वाली हो तो जाओ अपने मायके से ले आओ”, और बहू तांबे की कुंनी, सोने का दीपक और कपास की बाती लाने के लिए अपने मायके चल पड़ी। अपने दुधमुहे बालक को वह सास व अपनी सौतो के संरक्षण में छोड़ गई। उधर सौंतों ने बच्चे को मार डाला और उसके शव को दूब घास के तप्पड़ में दफना दिया। बहू जब अपने मायके से तांबे की कुंनी, सोने का दीपक, कपास की बाती लेकर लौटी तो उसने जैसे ही दूब घास के तपप्ड़ से दूब घास को तोड़ा तो उसका बच्चा उसके गले में लगे हुए दूब घास की डोर को पकड़कर जोर से चीख पड़ा और जीवित हो गया, इस व्रत के प्रभाव से।
अकेली मां ही जननी नहीं है धरती मां भी जननी है, क्योंकि जीव-जंतु और वनस्पतियां उसने ही उत्पन्न किए हैं। समस्त प्राणियों को वह वैसे ही धारण करती हैं जैसे कि मां गर्भ को। इसीलिए धरती माता ‘धात्री’ कहलाती है। गौरा-मैंसर की पूजा कुमाऊं अंचल की स्त्रियों का एक अत्यंत पवित्र अनुष्ठान है, ये उपवास, सुहाग व संतान की कामना से केवल स्त्रियां ही करती हैं, यहां वह भगवान शिव की अर्धांगिनी न होकर एक बहू, बेटी, बहन, पत्नी भी है जो सास सौंतो के ताने सुनती है, अपने मायके पर अभिमान करती है, रूठने पर धिक्कारती है, खुश होने पर आशीर्वाद देती है।
इस अनुष्ठान के संपन्न हो जाने के उपरांत इन डिकरों के पुतलों को जल में प्रवाहित कर दिया जाता है, और सभी को आशीर्वाद देने के उपरांत यह अनुष्ठान समाप्त हो जाता है।
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